इस कविता में कवि ऩे ग्रामीण परिवेश में एक आम जीवन व्यतीत करने वाले बूढ़े की पीड़ा दर्शाने की कोशिश की है |
आकाशाँ लाय लगा बैठ्या भर पाताल में पाणी रै
च्यार यार मिल धुंओ साराँ कराँ बाताँ स्याणी स्याणी रै
घर बिध की बाताँ चाली में गैले जातो सुण लीनी
चोखी बुरी तो थे पिछाणो मेरै पल्ले पडी सो चुण लीनी
छोरी रै ब्याव रो करज चुकायो कर छाती ऩे काठी रे
घर धिराणी लड़ राखी आज ही बेच्यो गहणो गाठी रे
टाट बकऱ्याँ लेगो कसाई गाय बळद लेगो बोहरो रे
आधी भूख काढऱ्या घर मै गयो दिसावर छोरो रे
काल भायाँ सूँ न्यारा होया आज बेटो न्यारो कर दीन्यो
बैठक कमरा छोरा बाँट्या लैरलो ढारियो मैं लीन्यो .
गाँव रे नीडे खेत छोराँ को मेरी पाँती रोही मैं
बी मैं भी आधों गिरवे धर दीन्यो आधो जासी कमाई खोई मैं
धेलै की तो कमाई कोन्या घर हाली पडी है खाट मैं
छोरी छोड़ सासरो आगी दायजे री आँट मैं
दो लाख नगद मांग ऱ्या एक इस्कूटर मांग्यो है
न्हातो भी सरमा ज्याऊ पैर राख्यो म्हीनाँ सूँ फाटेडो जाँघ्यो है
पीड पडी का ना सगा समन्धी स्वारथ को सारो जीणों है
लिख्योड़ो लेख कदे न टलसी कदे हाँसणो कदे रोणो है
पीसाँ टकाँ री ईजत जग मै ज्ञानी रो कोई मोल नहीं
धीरज मन मैं धार भायला बाताँ रो कोई तोल नहीं
- जगदीश 'पेंटर'
waah sa....bahut hi satik likha hai.....gyani ro sach me koi mol nahi hai....
ReplyDeleteबहुत ही बढिया रचना ....
ReplyDeleteएक गरीब बूढ़े का दर्द साफ़ झलकता है .....
jai ho ftepuri saheb.....
ReplyDeletehttp://www.bhaskar.com/article/RAJ-JAI-ncert-considered-native-to-rajasthan-1538335.html