Friday, December 10, 2010

शेखचिल्ली - जगदीश 'पेंटर'

मुक्की दे' र पापड फोडूं, लात की दे'र पतासो रे ,
मींगणी नै हदर उठा ल्यूँ, देखो यार तमासो रे |
 पाटा पर सूँ कूद ज्याऊं, नीम्बू निचोड़ दयूं  झटका सूँ,
फूसका नै फर उड़ा दयूं मैं नाड का लटका सूँ |
फूंक देकर चिमनी बुता दयूं तकियों उठा ल्यूँ हाथां सूँ ,
काम धंधो होवै कोनी घर चालरयो बाताँ सूँ  |
आधी रोटी सूँ पेट भरल्यां दो घूँट चाय की ,
दूध दही भावे  कोन्या उबाक आवै छाय की |
कीड़ी दाब कांख मै भागूँ कोई पकड़ ना पावे,
थर थर धूजे काया सारी म्हासूँ कुण टकरावे |
चालीस सेर को छैलो मै तो तुल्यां ताखड़ी टूटे रे,
पग पकड़'र झट मनाल्यूं जे घर हाली रूठे रे |    
होली दीवाली न्हावाँ धोवाँ करके तातो पाणी जी ,
खुडका सूँ डर के भागां या ही म्हारी पिछाणी जी |
माखी मार दयूं चूसो पकड़ क्यूं पण थाने भी तो क्यूं करणों है ,
थे भी मेरी तरियां हिम्मत करल्यो मरने सूँ के डरणो है |
कबड्डी का कोई पाला मांडे तो म्हारी कच्ची डाँई जी ,
थाला बैठ्या क्यूं तो कराँ जणा थाने या बात बतायी जी |   
                                                                                        - जगदीश 'पेंटर'

Thursday, November 11, 2010

पीर डोकरे री - जगदीश 'पेंटर'

इस कविता में कवि ऩे ग्रामीण परिवेश में एक आम जीवन व्यतीत करने वाले बूढ़े की पीड़ा दर्शाने की कोशिश की है |

आकाशाँ लाय लगा बैठ्या  भर पाताल में पाणी रै
च्यार यार मिल धुंओ साराँ कराँ बाताँ स्याणी स्याणी रै
घर बिध की बाताँ चाली में गैले जातो सुण लीनी
चोखी बुरी तो थे पिछाणो मेरै पल्ले पडी सो चुण लीनी

छोरी रै ब्याव रो करज चुकायो कर छाती ऩे काठी रे
घर धिराणी लड़ राखी आज ही बेच्यो गहणो गाठी रे
टाट बकऱ्याँ  लेगो कसाई गाय बळद लेगो बोहरो रे
आधी भूख काढऱ्या घर मै गयो दिसावर छोरो  रे

काल भायाँ सूँ न्यारा होया आज बेटो न्यारो कर दीन्यो
बैठक कमरा छोरा बाँट्या लैरलो ढारियो मैं  लीन्यो            .
गाँव रे नीडे खेत छोराँ को मेरी पाँती रोही मैं
बी मैं भी आधों गिरवे धर दीन्यो आधो जासी कमाई खोई मैं

धेलै  की तो कमाई कोन्या  घर हाली पडी है खाट मैं     
छोरी छोड़ सासरो आगी दायजे री आँट मैं
दो लाख नगद मांग ऱ्या एक इस्कूटर मांग्यो है
न्हातो भी सरमा ज्याऊ पैर राख्यो म्हीनाँ सूँ फाटेडो जाँघ्यो  है   

पीड  पडी का ना सगा समन्धी स्वारथ को सारो जीणों है
लिख्योड़ो लेख कदे न टलसी कदे हाँसणो कदे रोणो है
पीसाँ टकाँ री ईजत जग मै ज्ञानी रो कोई मोल नहीं
धीरज मन मैं धार भायला बाताँ रो कोई तोल नहीं   
                                                                            - जगदीश 'पेंटर'  

Tuesday, October 26, 2010

फतेहपुर आज्यो जी - जगदीश 'पेंटर'

देव दाता रो धाम निरालो, थे फतेहपुर आज्यो जी ,
घणी थारी मनवार करांला, सगला ऩे सागे ल्याज्यो जी ||

सेठ, सती और सूरमा, संताँ को है बास  अठे ,
छ ऋतु रो आणो जाणो, चन्दन जिस्यो घास अठे,
प्रेम प्रीत री बाताँ करस्यां, मौको मत बिसराज्यो जी,  
घणी थारी मनवार करांला, सगला ऩे सागे ल्याज्यो जी ||

बीड़, बावड़ी, जोहड़ न्यारा, देख्याँ मन हरसावे है,
मोर, पपीहा, कोयल बोले , रोम रोम मुसकावे है,
सगला आवो देखण ऩे, ई माटी रो करज चुकाज्यो जी,
घणी थारी मनवार कराँला , सगला ऩे सागे ल्याज्यो जी ||

केर साँगरा की तरकारी, रोटी मोठ  बाजरा की बणावाँगा,
देसी घी को दाल चूरमो, थाने घाल जिमावाँगा ,
दूध दही रा ठाठ मोकला, घने चाव सूँ खाज्यो जी,
घणी थारी मनवार करांला, सगला ऩे सागे ल्याज्यो जी ||  

ढारागढ़ सा हेली नोरा महलाँ बँगला ऩे मात करे,
कूँट कूँट पर मंदिर देवरा आकाशाँ सूँ बात करे,
संदेसो पढ़कर आया रीज्यो, म्हारो मान बढाज्यो जी,
घणी थारी मनवार करांला, सगला ऩे सागे ल्याज्यो जी ||  
                                                                             - जगदीश 'पेंटर'

Sunday, October 10, 2010

बतलावण दादा पोते री - बाबूलाल भोजक

दादों - तू के करसी के नहीं करसी
पोतो - थे के करता के नहीं करता
दादों - गाबाँ में चाय पिया पहली पग धरती तले धरे कोनी
          छापे में मूंड दियो राखे घर को धंधो सलटे कोनी
          आंख्यां पर राखे ढोबसिया मूंडे पर मूंछ क़तर राखी
          बाप जीवता बाळ दिया भदर में के कसर राखी
          तू के करसी के नहीं करसी
पोतो - थे के करता के नहीं करता
          कुर्तो सुथणीयो कडपदार हटड़ी पोथ्याँ सूँ भर राखी
          दिखे ज्यूं सुदो सांसर सो काया  तिरबंकी कर राखी
          बे अंग्रेजां का राज गया बे रीत रिवाज बले कोनी
          तेरो अण जुगतो हुनियारो घर काँ में कठे रले कोनी             
दादों -  तू के करसी के नहीं करसी
पोतो -  थे के करता के नहीं करता
दादों - ताम्बे के मोटे ढीगे ऩे हांडी में ल्हको ल्हको धरता
         गुड की गुडियानी लपसी सूँ म्हे सजन गोंठ सलटा देता
         सिणीया सा बढया झड़ूला पर बरसां सूँ राछ फिरा देता
         पचीस बरस का डांगर ऩे दे चिटकी च्यार भुला देता     
         धोती मण मेल भरी रहती बंड़ी चिटे स्यूं गळ ज्याती
         छाछ मेट  के धोवण स्यूं धोता तो जूवां झड ज्याती
         तू के करसी के नहीं करसी 
                                                                                - बाबूलाल भोजक
                                                                           राजस्थानी  फिल्म कलाकार   
                                                                                 फ़तेहपुर शेखावाटी

Thursday, September 30, 2010

वाह भई शेखावाटी - मुरली मनोहर बासोतिया

रामदेव जी पीर ओलिया , मुस्लिम धोकै न्यारा,
हिन्दू पूजे सकरबार सा , नरहड़ जाय परबारा |
ईद दिवाली परब मुबारक , ना रे किन्तु परन्तु ,
मंचित अठे रामलीला, मिल करे मुसलमां हिन्दू |
निरगुण निराकार परमेसर, ना अल्ला की जाति,
हिन्दू मुसलमां भाई भाई वाह भई शेखावाटी ||    

                                    मुरली मनोहर बासोतिया
                       रचित ' वाह भई शेखावाटी' पुस्तक से उद्धृत 

Thursday, September 23, 2010

भारत नै यूरोप बना दयांगा - पं नवल किशोर खेडवाल

हिन्द हिन्दी नै भूले तो हिन्दी और पढैलो  कुण,
गीता कुरान पडी रवैली बी रो पाठ करैलो कुण ,
थोड़ी मोमीन मिटाग्या था थोड़ी अंग्रेज मिटाग्या ,
और थोड़ी सी और मिटा दयांगा,
मत घबराओ साथीड़ा,  भारत नै यूरोप बना दयांगा,      
दूध दही नै छा नै भूल्या,  भूल्या इतिहास पुराणै   नै,
बिस्कुट चाय डबल रोटी बस रहगी फैशन खाणै में ,
टाबर अंग्रेज बणाबा री सगलाँ  रै मन में आ री है ,
छोरयाँ भी लारै क्यूँ  रहसी बै  भी बाल कटा री है
डब्बू गब्बू  बंटी पप्पू यै नाम सुण्या म्हे कूताँ  का  
बड़े गरब सूँ आज कढाया  म्हे  ही म्हारै पूताँ  का
म्हारै घर री इज्जत औरत ही अब कल्बा में नाच करावाँला
पतिव्रता और सती शब्द पर प्रतिबन्ध लगावाँला  
के ई दिन रे खाता ही सीमा पर गोल्याँ खाई थी
हंस हंस के फांसी चढ़रया था बे मौत ऩे गले लगाई थी   
यै  घर रा दिवला घर बाले तो घर ऩे अब  बचावैलों  कुण
गीता कुरान पडी रहसी बी रो पाठ करैलो कुण

Thursday, September 16, 2010

मत पूछै के ठाठ भायला - महावीर जोशी


यह कविता झुंझुनू जिले के बसावता खुर्द गाँव के रहने वाले कवि श्री महावीर जी जोशी ने लिखी है |  कविता में एक मित्र दूसरे मित्र को अपनी जवानी और वृद्धावस्था की तुलना करके अपनी हालत का वर्णन कर रहा है 


मत पूछे के ठाठ भायला | पोळी में है  खाट भायला || 
पनघट पायल बाज्या करती ,सुगनु चुड़लो हाथा मै | 
रूप रंगा रा मेला भरता ,रस बरस्या करतो बातां मै | 
हाँस हाँस कामन घणी पूछती , के के गुज़री राताँ  मै | 
घूंघट माई लजा बीनणी ,पल्लो देती दांता मै | 
नीर बिहुणी हुई बावड़ी , सूना पणघट घाट भायला | पोळी मै है खाट भायला ||

छल छल जोबन छ्ळ्क्या करतो ,गोटे हाळी कांचली | 
मांग हींगलू नथ रो मोती ,माथे रखडी सांकली | 
जगमग जगमग दिवलो जुगतो ,पळका पडता गैणा मै | 
घणी हेत सूं सेज सजाती ,काजल सारयां नैणा मै | 
उन नैणा मै जाळा पड़गा ,देख्या करता बाट भायला | पोळी मै है खाट भायला||

अतर छिडकतो पान चबातो नैलै ऊपर दैलो | 
दुनिया कैती कामणगारो ,अपने जुग को छैलो हो | 
पण बैरी की डाढ रूपि ना, इतनों बळ हो लाठी मैं | 
तन को बळ मन को जोश झळकणो ,मूंछा हाली आंटी मै ||| 
इब तो म्हारो राम रूखाळो , मिलगा दोनूं पाट भायला | पोळी मै है खाट भायला||

बिन दांता को हुयो जबाडो चश्मों चढ़ग्यो  आख्याँ मै | 
गोडा मांई पाणी पडगो जोर बच्यो नी हाथां मै | 
हाड हाड मै पीड पळै है रोम रोम है अब खाई | 
छाती कै मा कफ घरडावै खाल डील की लटक्याई || 
चिठियो  म्हारो साथी बणगो ,डगमग हालै टाट भायला | पोळी मै है खाट भायला ||

Thursday, September 9, 2010

गोखे बैठी शाम

सेठ बस्या कलकत्ता बम्बई डिबरूगढ़ आसाम 
चाकर ठीड़े बैठ्या बैठ्या काटी उमर तमाम 
कुण सूँ मुजरा करै हवेल्याँ बरसां मिलै न राम 
बाटडली जोवै आवण  री गोखे बैठी शाम    
 - अज्ञात 

Sunday, September 5, 2010

मायड़ भासा - ओम पुरोहित ' कागद'

राज बणाया राजव्यां,भाषा थरपी ज्यान । 
बिन भाषा रै भायला,क्यां रो राजस्थान ॥१॥ 
रोटी-बेटी आपणी,भाषा अर बोवार । 
राजस्थानी है भाई,आडो क्यूं दरबार ॥२॥ 
राजस्थानी रै साथ में,जनम मरण रो सीर । 
बिन भाषा रै भायला,कुत्तिया खावै खीर ।।३॥ 
पंचायत तो मोकळी,पंच बैठिया मून । 
बिन भाषा रै भायला,च्यारूं कूंटां सून ॥४॥ 
भलो बणायो बाप जी,गूंगो राजस्थान । 
बिन भाषा रै प्रांत तो,बिन देवळ रो थान॥५॥ 
आजादी रै बाद सूं,मून है राजस्थान । 
अपरोगी भाषा अठै,कूकर खुलै जुबान ॥६॥ 
राजस्थान सिरमोड है,मायड भाषा मान । 
दोनां माथै गरब है,दोनां साथै शान ॥७॥ 
बाजर पाकै खेत में,भाषा पाकै हेत । 
दोनां रै छूट्यां पछै,हाथां आवै रेत ॥८॥ 
निज भाषा सूं हेत नीं,पर भाषा सूं हेत । 
जग में हांसी होयसी,सिर में पड्सी रेत ॥९॥ 
निज री भाषा होंवतां,पर भाषा सूं प्रीत । 
ऐडै कुळघातियां रो ,जग में कुण सो मीत ॥१०॥ 
घर दफ़्तर अर बारनै,निज भाषा ई बोल । 
मायड भाषा रै बिना,डांगर जितनो मोल ॥११॥ 
मायड भाषा नीं तजै,डांगर-पंछी-कीट । 
माणस भाषा क्यूं तजै, इतरा क्यूं है ढीट ॥१२॥ 
मायड भाषा रै बिना,देस हुवै परदेस । 
आप तो अबोला फ़िरै,दूजा खोसै केस ॥१३॥ 
भाषा निज री बोलियो,पर भाषा नै छोड । 
पर भाषा बोलै जका,बै पाखंडी मोड ॥१४॥ 
मायड भाषा भली घणी, ज्यूं व्है मीठी खांड । 
पर भाषा नै बोलता,जाबक दीखै भांड ॥१५॥ 
जिण धरती पर बास है,भाषा उण री बोल । 
भाषा साथ मान है , भाषा लारै मोल ॥१६॥ 
मायड भाषा बेलियो,निज रो है सनमान । 
पर भाषा नै बोल कर,क्यूं गमाओ शान ॥१७॥ 
राजस्थानी भाषा नै,जितरो मिलसी मान । 
आन-बान अर शान सूं,निखरसी राजस्थान ॥१८॥ 
धन कमायां नीं मिलै,बो सांचो सनमान । 
मायड भाषा रै बिना,लूंठा खोसै कान ॥१९॥ 
म्हे तो भाया मांगस्यां,सणै मान सनमान । 
राजस्थानी भाषा में,हसतो-बसतो रजथान ॥२०॥ 
निज भाषा नै छोड कर,पर भाषा अपणाय । 
ऐडै पूतां नै देख ,मायड भौम लजाय ॥२१॥ 
भाषा आपणी शान है,भाषा ही है मान । 
भाषा रै ई कारणै,बोलां राजस्थान ॥२२॥ 
मायड भाषा मोवणी,ज्यूं मोत्यां रो हार । 
बिन भाषा रै भायला,सूनो लागै थार ॥२३॥ 
जिण धरती पर जळमियो,भाषा उण री बोल । 
मायड भाषा छोड कर, मती गमाओ डोळ ॥२४॥ 
हिन्दी म्हारो काळजियो,राजस्थानी स ज्यान । 
आं दोन्यूं भाषा बिना,रै’सी कठै पिछाण ॥२५॥ 
राजस्थानी भाषा है,राजस्थान रै साथ । 
पेट आपणा नीं पळै,पर भाषा रै हाथ ॥२६
                                                     ===ओम पुरोहित’कागद’ 
                                                   साभार from www.omkagad.blogspot.com 

Friday, September 3, 2010

कहीं नोरा पड्या - दौलतराम छाजेड

कहीं नोरा पड्या कहीं बाड़ा पड्या
कहीं खेत का खेत उजाड्या पड्या
कहीं खेजडा खोखां सै बोझ मरै
कहीं लूँग बिचारा का झाड्या पड्या
कहीं घोचाँ सूँ नीठ रसोई बनै
कहीं ढारा मैं लक्कड़ फाड्या पड्या
कहीं रंग सुरंगी हवेली घणी
कहीं बोदी मैं चीर दराड़ा पड्या
कहीं सूनी हवेली मैं सून घणी
कहीं घुबारयाँ मैं बीसाँ ही बाड्या  पड्या
कहीं खद्दर को मिलै ना चादरों
कहीं रेशम मलमल फाड्या पड्या
कहीं अन्न बिना नित मन दुखी
कहीं दाड़िम दाख सिंघाड़ा पड्या
कहीं ब्याज क़ि आय को पार नहीं
कहीं भाड़ेती का चढ्या भाड़ा पड्या
कहीं जेब मैं एक दुअन्नी नहीं
कहीं नोटां का ताड़ा का ताड़ा पड्या
कहीं भाटां का टाबर साफ़ घणा
कहीं सेडै सूँ नास लिवाड्या  पड्या
कहीं साँची भी रांड कहवे तो डरै
कहीं झूठा ही झोड़ झपाड़ा पड्या
कह दौलत कर्म कथा सगली
कहीं सून्धा पड्या ऊंधा पड्या