Saturday, March 21, 2015

गाय की रोटी - जगदीश पेन्टर

एक भूखी भटकती गाय घर के सामने आगी
या देख कर घर हाली लाठी लेकर भागी
बोली खा तेरै धणी नै अठै के मांगै है
दो तीन मार दीनी गाय फेर भी नहीं भागै  है
मेरै आँख्याँ मैं पाणी आगो पण कुछी कोनी बोल्यो
कई देर सोच्यो कांई करूँ मन आत्मा नै टटोल्यो
आत्मा बोली गाय नै रोटी दे दयूं
मन बोल्यो तू आँनै पालसी तो तनै कुण घालसी
सोच्यो एक रोटी की खातिर भाई सूँ भाई न्यारा होरया है
और बिना मतलब ही आँसू बहारया है
सब्र को बाँध ही टूटगो माँय सूँ हियो ही फूटगो
पण अब तक भी घर हाली लाठी लियाँ खड़ी ही
बा गाय भी कोनी मानी दरवाजे के सामने अड़ी ही
ना तो गाय हालै ना ही घर हाली मानै
गाय तो भूखी ही कुण जाय दोन्यां नै समझावै
मैं दोन्या के बीच में बोल्यो तू आज्या बा चल ज्यासी
लाठी मेरे कानी कर घर हाली बोली भगाबा दयो अबार गोबर कर ज्यासी
मैं बोल्यो स्याणी रहण दे या मते ही आगे चालसी
आपाँ तो कोई घालां अगला घर हाला घालसी
घर मैं आयी तो म्हाने समझाबा लागी अइयां दिन घालसी
रोटी पोती पोती मरगी  आपणा टाबरां नै कुण घालसी
मन मैं सोची हे भगवान कुणसा खेल खेल रहयो है
भाग मैं लिख्योड़ा आज ही दे क्यूँ म्हाने ललचा रहयो है
एक रोटी की खातर कैयां जीनो मरणो है
लुगाई नै मनाई घणी ही समझाई पण मानी कोनी
बोली जे ई नै दी तो थाने खाणी कोनी
हिम्मत कर बोल्यो आधी ही दे दे बदला मैं मेरी आज की सारी ले ले
लुगाई समझायेडी मानी कद भगवान सगळा ने दे या जाणी कद
साँची बात पर आणो पड़सी थाने बता रहयो हूँ
इसी  बातां कर थारो भी जीव लजा रहयो हूँ
एक रोटी सूँ कुणसो गाय को पेट भरतो
एक रोटी गाय नै दियां कुणसो जीतो मरतो
दूध देवे जड़ तक पालसी दूध हटयाँ पाछे बीड मैं घालसी
पण हाल भी बात बाकी है थे बताओ झूटी है के साँची है
गाय अङ्गी लुगाई भिड़गी
बा लाठी सूँ मार रही है पण गाय फेर भी नहीं हाल रही है
आज तो रोटी लेकर ही जाउंगी नहीं दियाँ अठै ही मर ज्याऊंगी
लुगाई मानगी गाय आगे चालगी
जाती जाती मने कहगी कलजुग की गंगा बहगी
शर्म कर ले तेरी भी दशा होणी है  लुगाई सूँ मतलब राख नहीं तो खोणी है
यो सुणता ही होश आगो और लुगाई ने बतागो
आज के बाद जीयो चाहे मरो पण गाय ने रोटी देणो है
मन मैं धार ली है बदला मैं कुछ नहीं लेणो है
नरक मिले या सुरग आपणो सात जन्मां को साथ है
एक रोटी देणो तो आपणे दोन्यां के हाथ है
जाण स्याणी पिछाण स्याणी जिकी दूध देवे बा माँ होवे  है
आने रोटी ना देकर क्यूँ आपणा दीदा खोवे है
लुगाई जात मानी कोनी पाछी समझावण लागी
घराँ घणो टोटो है सारो घाटो बतावण लागी
बातां चाल री म्हारी गाय बा पाछी आगी
जाती जाती घर को पोली ने खटखटागी
भाग कर देखो विधाता आयी है सगळे कुटुंब को नसीब सागे ल्याई है
देख्यो तो बा ही बात क्यूँ भी कोई बदल पाया
बा ही गाय बा ही घर हाली म्हे भी घर सूँ बारे निकल आया
अब तो रोणे को भी बहानो कोई गाय हाली भी खड़ी थी
हर दरवाजे पर मेरी घर हाली की जियां लुगायां लाठी ले'र खड़ी थी
पण बा भूखी गाय अब भी रोटी खातर अड़ी थी  

                                                                   - जगदीश पेन्टर

Tuesday, July 16, 2013

शरम आंख्यां की - अज्ञात

जेठ साढ़ को तावड़ो ठाडी बरसे लाय
घूंघट काड्या  बीनणी बैठी गरम्याँ मांय
 बैठी गरम्याँ मांय  उमस सूं  जी घबरावे
सुसरो जी री काण घूंघटो कियाँ हटावे
खूब अजब दस्तूर अचंभो म्हाने आवे
मुंडे सूं बोले बाप बाप सूं शकल ल्हुकावे
घूंघट  करद्यो बंद काईँ परदे में नाखो
परदे की के काण शर्म आंख्यां की राखो

                                            - अज्ञात

Wednesday, May 23, 2012

किण नै बोलाँ बावला - शिव मृदुल

रूँख लगाया राख्या कोनी मीठा फल भी चाख्या कोनी ,
स्वारथ  री ले हाथ कुल्हाड़ी काटन हुया उतावला ,
बोलो किण  रा  काम सरावाँ किण  नै  बोलाँ बावला ।
   
ज्यूँ ज्यूँ रूँख कट्या मंगरा सू मिनखपणै  री जड़ कटगी ,
पैला मन में बनी दीवाराँ धरती टुकडाँ  मैं बँटगी ,
हेत रेत  रै पैंदे दब्ग्यो खेत बदल्ग्या बस्ती में ,
वन रे थोर मिला री चिमण्या धुओं उगल री मस्ती में,
कट्या  नीम बड पीपल चन्दन , केर,  टीमरू, आँवला ,
बोलो किण  रा  काम सरावाँ किण  नै  बोलाँ बावला ।

चोफेर है हवा धुवादी जहर घुल्यो जिनगाणी में ,
गजब गन्दगी घुल्बा लागी इमरत जैडा पानी में  ,
 सुख रो सागर सूखो निकल्यो सपना बिक्या उधारी में ,
खुशबू री आसा में उगी बदबू केसर क्यारी में ,
मानसरोवर पूक्या बगला तन उजला मन साँवला ,
बोलो किण  रा  काम सरावाँ किण  नै  बोलाँ बावला ।
बगुला री एकत है ठाडी हंस गिणत में थोड़ा है ,
मानसरोवर गुदलो होगो या हंसा में फोड़ा है ,
झीलां में जलकुम्भी पसरी जल में कमल खिले कोनी ,
चुगबा खातर  याँ हँसा ने मोती आज मिले कोनी,
बगुला रे घर माँडा माही रहवे हंस कन्यावाला ,
बोलो किण  रा  काम सरावाँ किण  नै  बोलाँ बावला ।

डोर धनुष री टूटी टूटी तीर पड्या सब तरकश में ,
पडी गुफायाँ सगली सूनी शेर घुस्या सब सरकस में ,
 पिंजरा में वनराज पीठ पे चाबूका नित झेले है ,
जंगला माँही चोडै दहाड़े स्यार कबड्डी खेले है ,
भूखा तिसाया हिरन फिरे अर गोठ करे है कावला,
बोलो किण  रा  काम सरावाँ किण  नै  बोलाँ बावला ।

शिव मृदुल 


Friday, November 25, 2011

कांई पूछैलो बाबा - अज्ञात

आटै-दाळ रो भाव जाण लियो, और कांई पूछैलो बाबा ।
मंहगाई री बातां करां तो, काळजियो धूजैलो बाबा ॥

मोडा-नेता मंत्रबाज सहै, परजा ऊपर फूंक मार रया ।
तूं भी कोई अफंड रचालै, सगळो जग पूजैला बाबा ॥

संसद ऊपर गोळी चालै, बाथरूम में लुक ज्यावैला ।
हत्यारा हलुओ खावैला, तूं बिरथा कूकैलो बाबा ॥

लाधड़ियै में रहणो है तो, हां जी, हां जी कहता जावो ।
बात सांचली कह गेरी तो, तेरो गळो टूंपलो बाबा ॥

जे कोई मिलग्यो सांड आबखो, अहड़ी लात लगा देसी ।
धरम-करम धूळ में रळसी, जमलोकां पूगैलो बाबा ॥
                                              - अज्ञात 

Wednesday, April 20, 2011

हेली - ताऊ शेखावाटी

हेली जलम्यो है बो मरसी, ईं में बोल राम के करसी।
मंदिर धोकर चाए मसजिद, गुरुद्वाराँ अरदास कर्याँ नित।
काम न आणी कोई भी बिध, तूँ जितणी भी करसी।
हेली! जलम्यो है वो मरसी, जग में जीव जळम निज पाताँ।
लेखो लेती हाथूँ-हाथाँ, साँस जिता घालै बेमाता।
उतणा लेणा पड़सी, हेली! जळम्यो है बो मरसी।
क्यूँ होरी है करड़ी-काठी, काळचक्र गति जाय न डाटी।
सब नैं हीं मिलणो है माटी, घींस्यो हो या घड़सी।
हेली! जळम्यो है बो मरसी, होणी कदै टळै नीं टाळी।
रीत सदाँ स्यूँ आई चाली, पल्लव नुवाँ उगंताँ डाळी।
पात पुराणाँ झड़सी, हेली! जळम्यो है बो मरसी।
                                  - ताऊ शेखावाटी 

Saturday, April 2, 2011

एक छोरी काळती - भागीरथ सिंह भाग्य

एक छोरी काळती हमेशा जीव बाळती,
सींवा जोड़ खेत म्हारो चाव सूँ रूखाळती |(एक छोरी...

ऊंचा ऊंचा टीबडा मै रूंखड़ा रो खेत हो ,
खेत रुजगार म्हारो खेत सूँ ही हेत हो |
हेत हरियाल्या नै तावडा सूँ टाळती || (एक छोरी ...

बेल बीरो शीश फूल फूल बीरी राखड़ी,
एक बार आखडी तो बार बार आखडी |
लाज सूँ झुकी झुकी सी लूगड़ी संभाळती|| (एक छोरी ...

भोत राजी रेवती तो झूपडी बुहारती ,
रूसती तो गाव्ड्या नै बाछड़ा नै मारती |
हेत जै जणावती तो टींडसी उछाळती || (एक छोरी ...

गाँव रै गुवाड़ बीच देखती ना बोलती ,
हेत सूँ बुलावता तो आँख भी ना खोलती |
खेत मै ना जावता तो गाळीयाँ निकालती ||(एक छोरी ....
                                                                    - भागीरथ सिंह भाग्य 

Monday, March 21, 2011

मत दीजे परदेस - भागीरथ सिंह भाग्य

लोग न जाणै कायदा ना जाणै अपणेस । राम भलाईँ मौत दे मत दीजै परदेस  ||
ना सुख चाहु सुरग रो नरक आवसी दाय। म्हारी माटी गांव री गळियाँ जै रळ जाय॥
जोगी आयो गांव सूँ ल्यायो ओ समचार । काळ पड्यो नी धुक सक्यो दिवलाँ रो त्युहार् ॥
इकतारो अर गीतडा जोगी री जागीर । घिरता फिरतापावणा घर घर थारो सीर ॥
आ जोगी बंतल कराँ पूछा मन री बात । उगता हुसी गांव मँ अब भी दिन अर रात ॥
जमती हुसी मैफलाँ मद छकिया भोपाळ । देता हुसी आपजी अब पी कै गाळ ॥
दारू पीवै आपजी टूट्यो पड्यो गिलास । पी कै बोलै फारसी पड्या न एक किलास ॥
साँझ ढल्याँ नित गाँव री भर ज्याती चौपाळ । चिलमा धूँवा चालती बाताँ आळ पताळ ॥
पाती लेज्या डाकिया जा मरवण रै देश । प्रीत बिना जिणो किसो कैजे ओ सन्देश ॥
काळी कोसा आंतरै परदेशी री प्रीत । पूग सकै तो पूग तूँ नेह बिजोगी गीत ॥
मरवण गावै पीपली तेजो गावै लोग । मै बैठयो परदेश मँ भोगू रोग बिजोग ।।
सावण आयो सायनी खेता नाचै मोर । म्हारै नैणा रात दिन गळ गळ जावै मोर ॥
                                                                                          - भागीरथ सिंह भाग्य